जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत् १९४६ वि॰ तदनुसार 30 जनवरी 1890 ई॰ दिन-गुरुवार को काशी में हुआ। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी भी दान देने के साथ-साथ कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी।
प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई थी, परंतु यह शिक्षा अल्पकालिक थी। छठे दर्जे में वहाँ शिक्षा आरंभ हुई थी और सातवें दर्जे तक ही वे वहाँ पढ़ पाये। उनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध घर पर ही किया गया, जहाँ हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन इन्होंने किया। प्रसाद जी के प्रारंभिक शिक्षक श्री मोहिनीलाल गुप्त थे। वे कवि थे और उनका उपनाम 'रसमय सिद्ध' था। शिक्षक के रूप में वे बहुत प्रसिद्ध थे। चेतगंज के प्राचीन दलहट्टा मोहल्ले में उनकी अपनी छोटी सी बाल पाठशाला थी। 'रसमय सिद्ध' जी ने प्रसाद जी को प्रारंभिक शिक्षा दी तथा हिंदी और संस्कृत में अच्छी प्रगति करा दी। प्रसाद जी ने संस्कृत की गहन शिक्षा प्राप्त की थी। उनके निकट संपर्क में रहने वाले तीन सुधी व्यक्तियों के द्वारा तीन संस्कृत अध्यापकों के नाम मिलते हैं। डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा के अनुसार "चेतगंज के तेलियाने की पतली गली में इटावा के एक उद्भट विद्वान रहते थे। संस्कृत-साहित्य के उस दुर्धर्ष मनीषी का नाम था - गोपाल बाबा। प्रसाद जी को संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए उन्हें ही चुना गया।" विनोदशंकर व्यास के अनुसार "श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी उन्हें संस्कृत और उपनिषद् पढ़ाते थे।" राय कृष्णदास के अनुसार रसमय सिद्ध से शिक्षा पाने के बाद प्रसाद जी ने एक विद्वान् हरिहर महाराज से और संस्कृत पढ़ी। वे लहुराबीर मुहल्ले के आस-पास रहते थे। प्रसाद जी का संस्कृत प्रेम बढ़ता गया। उन्होंने स्वयमेव उसका बहुत अच्छा अभ्यास कर लिया था। बाद में वे स्वाध्याय से ही वैदिक संस्कृत में भी निष्णात हो गये थे।" बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत-अध्यापक महामहोपाध्याय पं॰ देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती को प्रसाद जी का काव्यगुरु माना जाता है।
घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था। उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्यशास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान-पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। इनकी पहली कविता ‘सावक पंचक’ सन १९०६ में भारतेंदु पत्रिका में कलाधर नाम से ही प्रकाशित हुई थी। वे नियमित रूप से गीता-पाठ करते थे, परंतु वे संस्कृत में गीता के पाठ मात्र को पर्याप्त न मानकर गीता के आशय को जीवन में धारण करना आवश्यक मानते थे।
प्रसाद जी का पहला विवाह 1909 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी के साथ हुआ था। उनकी पत्नी को क्षय रोग था। सन् 1916 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी का निधन हो गया। उसी समय से उनके घर में क्षय रोग के कीटाणु प्रवेश कर गये थे। सन् 1917 ई॰ में सरस्वती देवी के साथ उनका दूसरा विवाह हुआ। दूसरा विवाह होने पर उनकी पहली पत्नी की साड़ियों आदि को उनकी द्वितीय पत्नी ने भी पहना और कुछ समय बाद उन्हें भी क्षय रोग हो गया और दो ही वर्ष बाद 1919 ई॰ में उनका देहांत भी प्रसूतावस्था में क्षय रोग से ही हुआ। इसके बाद पुनः घर बसाने की उनकी लालसा नहीं थी, परंतु अनेक लोगों के समझाने और सबसे अधिक अपनी भाभी के प्रतिदिन के शोकमय जीवन को सुलझाने के लिए उन्हें बाध्य होकर विवाह करना पड़ा। सन् १९१९ ई॰ में उनका तीसरा विवाह कमला देवी के साथ हुआ। उनका एकमात्र पुत्र रत्नशंकर प्रसाद तीसरी पत्नी की ही संतान थे, जिनका जन्म सन् १९२२ ई॰ में हुआ था। स्वयं प्रसाद जी भी जीवन के अंत में क्षय रोग से ग्रस्त हो गये थे और एलोपैथिक के अतिरिक्त लंबे समय तक होमियोपैथिक तथा कुछ समय आयुर्वेदिक चिकित्सा का सहारा लेने के बावजूद इस रोग से मुक्त न हो सके और अंततः इसी रोग से १५ नवम्बर १९३७ (दिन-सोमवार) को प्रातःकाल (उम्र ४७) उनका देहान्त काशी में हुआ। सुप्रसिद्ध युवा कवि गोलेन्द्र पटेल ने अपनी कविता ‘कठौती और करघा’ में काशी के संदर्भ में कहा है कि
“रैदास की कठौती और कबीर के करघे के बीच/ तुलसी का दुख एक सेतु की तरह है/ जिस पर से गुज़रने पर/ हमें प्रसाद, प्रेमचंद व धूमिल आदि के दर्शन होते हैं!/
यह काशी/ बेगमपुरा, अमरदेसवा और रामराज्य की नाभि है।” (कवितांश : ‘कठौती और करघा’ से) विकिपीडिया द्वारा प्रदान किया गया